मैं भारत बोल रहा हूं 1
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
1. सरस्वती बंदना (मॉं शारदे)
मॉं शारदे! मृदु सार दे!!, सबके मनोरथ सार दै!!!
झंकृत हो, मृदु वीणा मधुर, मॉं शारदे, वह प्यार दे।।
अज्ञान तिमिरा ध्वंस मॉं, ज्ञान की अधिष्ठात्री।
विश्व मे कण-कण विराजे, दिव्य ज्योर्ति धात्री।।
हम दीन-जन तेरी शरण, सब कष्ट से मॉं! तार दे।।1।।
तुम्हीं,
तुम हो भवानी अम्बिके, अगणित स्वरूपों धारणी।
सुख और समृद्धि तुम्हीं, सब कष्ट जग के हारिणी।।
कर-वद्ध विनती है यहीं, सु-मनों भरा उपहार दे।।2।।
अपने सुतों पर करि कृपा, वरदायिनी, वरदान दो।
खुल जायें अन्तःचक्षु ये, ऐसा विशद्, सद् ज्ञान दो।।
लग जायें जग कल्याण में, वह मानवी- उपकर दे।।3।।
करूणा भरे हों सप्त स्वर, अनुराग मय सब राग हों।
हो दिव्य जीवन शान्तिमय, पावन, धवल, वे दाग हों।।
‘‘मनमस्त’’ मन हो सभी के ऐसा सुखद् व्यवहार दे।।4।।
2.एक निराला और दे दो
अर्चना करते तुम्हीं से, वन्दना के शत् स्वरों में,
आज की मानव मही को, इक निराला और दे दो।।
कई करोडों मानवों के, भाल में चन्दन लगाने,
जाग कर जो सो गये है, आज उनको फिर जगाने,
वैभवी मद की तृषा सी, आज मधुशाला मिटाने,
तोड़ती पत्थर, टपकती छान के नव गीत गाने।
अरू करै श्रंगार मॉं का, वह निराला और दे दो।।1।।
आज का विज्ञान मानव, चॉंद की धरती खड़ा है,
सोचलो उन्नति यही क्या?, द्वार औरों के पडा है,
कर रहा उपक्रम अनूठे, विश्व में विस्तार लाने,
और कहता-जा रहा है, चांद की दूनियां सजाने।
चॉंद पर हों लाल जिसके, भवन में गहरा अंधेरा,
दीन हीना अंध मॉं-को इक उजाला और दे दो।।2।।
ब्रह्म शक्ति के सुनहरे स्वप्न की रचने दिवाली,
जो कहे कहानी अनूठी, कूल दोनों की निराली,
जिंदगी में जिंदगी की, दर्द रेखा जो जनाये,
मानवो की क्या कहैं, हर पेड का हर पात गाये।
बसन हीना जन जमी को, शान्ति, सुख, सौजन्य देने,
शस्य-श्यामल अरू बंसती, इक दुशाला और दे दो।।3।।
मातृ-भू की वीथियों में, राह जिसकी देखते हम,
सृजन पथ में जो थका नहीं, और देता ही रहा दम,
खडहरों की नींव के, गहरे दरारे दर्द देखे,
शीत की शीतल लहर में, कटकटाते दांत देखे।
और सहते भूख भी जो- देखता था जन हृदय को,
पींठ ही में पेट है बस-वह निराला और दे दो।।4।।
हों भरे भंडार लेंकिन, भूख से मानव मरे हो,
शुष्क अन्तर बन गया हो, सिर्फ ऊपर से हरे हो,
कागजो में बंट रही हो, राहतो की मदद केवल,
सत्य की होती विजय है, टंग रही हों, द्वार लेविल।
किन्तु कैसी जिन्दगी को जन, हृदय यहां जी रहा है,
अडिग हो जो, बात सच्ची, कहने वाला और दे दो।।5।।
आज कविता कामिनी को, मुक्ति द्वारे कर गया जो,
शान्ति, शीतल,मुक्ति-मुक्ता,मांग में है, भर गाया जो,
साधना मय जिंदगी अरू ध्यान हो मॉं का निंरतर-
श्वांस ही हो गीत पावन, जो वहे हो सुद्ध अंतर।
विश्व ही हो राग की झंकार का इकतार झन-झन,
वह अनूठी रागिनी के राग बाला और दे दो।।6।।
3. गजल
सोचा था, जो वीत गये, वो वरस नहीं फिर आयेंगे।
आज पुराना वक्शा खोला, तो देखा सब रक्खे हैं।।
फाड़ दिये थे वो सब खत, जो मेरे पास पुराने थे।
मन का कोना जरा टटोला, तो देखा सब रक्खे हैं।।
यादों के संग बैठ के रोना, भूल गया कितने दिन से।
आँखें शायद बदल गयीं हैं, ऑंसू तो सब रक्खे हैं।।
रातों में जो दूर-दूर तक साथ चले वो नहीं कहीं-
नींद ही रस्ता भटक गयी हैं, ख्बाब तो सारे रक्खे हैं।।
फिर कहने को जी करता है, बातें वहीं पुरानी सब-
सुनने वाला कोई नहीं हैं, किस्से तो सब रक्खे हैं।।